LOLTANTRI JATRA

आव आव किसान भाई जतरा में
आव आव मजूर भाई जतरा में
एकर साइति न खोज. पतरा में | आव....
दीदी बहिनी आव. एहि जतरा में
साधु-संतो सुनाव कथा जतरा में
ज्ञानी –ध्यानी जगाव जोग जतरा में
मुक्ति नइखे लुकाइल पोथी-पतरा में |


जतरा में जान-मान जतरा में इज्जत
छोट-बङ मनई के इहवाँ न हुज्जत
आपन सगरो ईमान आजु खतरा में | आव...
बाति के बहादुर जे करमे बा खुख्ख
जनता जनार्दन क ऊ भइलें मुख्ख
बैदा डार दवाई कतरा-कतरा में | आव...
लोकतंत्र आइल काम होता कच्चा
कइके बुझवले से बाति होई पक्का
भईया मंतरि ई ल जुडिके जतरा में | आव....

Loktantri jatra me 'Shathi - Samaj'

लोकतंत्री जात्रा में ‘साथी-समाज’ और ‘सहज लोकतंत्र’
अपने देश-समाज का लोकतंत्र आज़ादी की लड़ाई की कोख से निकला है | स्वतंत्र भारत का भविष्य कैसा होगा ,यही आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों का अपने –अपने तरह से प्रेरणा-स्रोत रहा है | अंगरेजों के जाने के बाद जिस संविधान की स्थापना हुई,उसके साथ सुलूक भी सबका एक जैसा नहीं है | देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के भीतर गतिमान भाव-व्यापार की कुछ बुनियादी दिक्कतें हैं, जिन्हें इस ‘लोकतंत्री धाम’ के थापक जनार्दन धामिया ने समय-समय पर व्यक्त किया है | अपने आस-पास के जीवन के बीच ही जनार्दन धामिया का मन-मस्तिष्क क्रियाशील होता रहा है | ‘लोकतांत्रिक-स्वधर्मे निधनं श्रेय :’ में यही भाव-व्यापार एक साथ पुस्तक आकर में भी नील कमल प्रकाशन , गोरखपुर की ओर से प्रकाशित हुआ है | इस पुस्तक के प्रकाशन से संवाद की एक स्थिति बन गयी है और आज के दौर में इस संवाद की बड़ी महत्ता है | लोकतंत्र में संवादी –जन ही कहीं पहुँचते हैं | अलग-थलग वाली गतिविधियाँ लोकतंत्र के विपरीत ले जाती हैं | एक संवाद-मंच की तलाश में इस धामिया ने ‘लोकतांत्रिक-स्वधर्मे निधनं श्रेय :संवादी-जन के साथ' नामक पुस्तिका ‘भारतीय सार्वजनिक जीवन सम्पोषण धाम ’ की ओर से प्रकाशित की है | इस सिलसिले को आगे बढ़ाने की गरज से अब ‘लोकतंत्री-जात्रा’ जारी है | समाज को परिवर्तित करने वाली धारा में लम्बे समय से लगे रहने के चलते ही यह बात समझ में आ सकी कि लोकतंत्र की राह से काम को अंजाम तक पहुँचाने की ओर बढ़ा जाय |


साथी-समाज
हमारी यह लोकतंत्री-जात्रा चल सकेगी ‘साथी-समाज’ की ही बदौलत | इसमें अन्य को अपने सामान मानने का भाव बुनियाद में रहेगा | अभी तो विभेद के बीच ही रिश्तों की गाँठ जुड़ी है | यह गाँठ रिश्तों में चलने वाले जीवन को असह्य तथा सड़ांधयुक्त बनाने लगी है | हम इस बात से अवगत हैं कि हर तरफ असमानता का ही प्रसार है | समता-सृजन का एक महाकाव्यात्मक दौर आरम्भ होना है, जो विध्यमान ‘विसाथी-समाज’ वाली गति को पिछाड़ देने के दम पर ही आगे बढ़ेगा |